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रवि कांत 'अनमोल'
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हमारी माँ है हिन्दोस्तान की धरती जहाँ वालो
हमारी जात हिन्दी, धर्म है ईमान है हिन्दी
समूचा ज्ञान हमने हिन्दी के कदमों में पाया है
हमारा वेद है हिन्दी हमे कुरआन है हिन्दी
हमें हिन्दोसितां को फिर वही दर्जा दिलाना है
कि हिन्दोस्तान के उत्थान का ऐलान है हिन्दी
सभी भारत की भाषाओं की है हिन्दी बड़ी दीदी
महब्बत से सभी बहनों का रखती ध्यान है हिन्दी
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रवि कांत 'अनमोल'
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1
मेरी धड़कनों में रवानी रहेगी
अगर आपकी मेहरबानी रहेगी
चलो नाम अपना शजर पर कुरेदें
महब्बत की कोई निशानी रहेगी
रहेंगे हमेशा यहाँ चाँद सूरज
ये दुनिया मगर आनी जानी रहेगी
यकीं है मुझे तू भी पिघलेगा इक दिन
कहां तक तेरी बदगुमानी रहेगी
तेरे लब पे मेरा फ़साना रहेगा
मेरे लब पे तेरी कहानी रहेगी
तुम्हारा तुम्हारा तुम्हारा रहूँगा
जहां तक मेरी ज़िन्दग़ानी रहेगी
'चिराग़' इस कहानी में फ़िर क्या रहेगा
न राजा रहेगा न रानी रहेगी
शाइर - शशि भूषण 'चिराग़'
2
किसी की आँख का सपना हुआ हूँ
चमन में फूल सा महका हुआ हूँ
मिरी हस्ती मिटा डालें न पत्थर
मैं शीशे की तरह सहमा हुआ हूँ
नज़र आता हूँ बाहर से मुकम्मल
मगर अंदर से मैं टूटा हुआ हूँ
मैं कांटा और मेरा ये मुकद्दर
ग़ुलों की शाख़ से लिपटा हुआ हूँ
नहीं कोई जो थामे हाथ मेरा
भरी दुनिया में यूँ तन्हा हुआ हूँ
कभी तुम मेरी जानिब उड़ के आना
मैं अंबर की तरह फैला हुआ हूँ
'चिराग़' ऐसे मक़ाम आए हैं अक्सर
कभी सागर कभी सहरा हुआ हूँ
शाइर - शशि भूषण 'चिराग़'
3
दे सभी मुश्क़िलों का हल मुझको
पूछना है किसी ने कल मुझको
पाँव ये कह रहे हैं और नहीं
हौसिले कह रहे हैं चल मुझको
जिनपे छिलका न जिनमें गुठली हो
अच्छे लगते हैं ऐसे फ्ल मुझको
आप अपने से बात करता हूँ
क्या हुआ है ये आज कल मुझको
जो गुज़ारा है तुम ने साथ मेरे
याद है एक एक पल मुझको
क्या खबर थी जो आज बिछुड़ा है
लौट कर फिर मिलेगा कल मुझको
ख़ाक ये कह रही है उड़ उड़ के
अपने मुंह पर 'चिराग़' मल मुझको
शाइर - शशि भूषण 'चिराग़'
4
मेरी क़िस्मत में जो लिखा होगा
मुझको वो ही तो कुछ मिला होगा
मैं उसे चाहता तो हूँ लेकिन
इक मेरे चाहने से क्या होगा
वक़्त रुक जाएगा वहीं आ कर
जब मेरा उनका सामना होगा
ये कहे डूबता हुआ सूरज
एक दिन सब को डूबना होगा
आज हसरत से देख लूँ तुमको
जाने फिर कब ये देखना होगा
सब तुझे ढूढते हैं रह रह कर
तेरा कुछ तो अता पता होगा
तू करे है 'चिराग़' क्यूँ शिकवा
जो मिला आज कल जुदा होगा
शाइर - शशि भूषण 'चिराग़'
5
तुमने दिए जो दर्द वो पाले नहीं गये
हमसे तुम्हारे ज़ख़्म सभाले नहीं गये
दिन रात मैंने टूट के कोशिश हज़ार की
लिक्खे हुए तक़दीर के पाले नहीं गये
जिनको ख़ुदा का दिल ही में दीदार हो गया
मस्जिद नहीं गए वो शिवाले नहीं गये
माना तुम्हारी चाह के काबिल नहीं थे हम
फिर क्यों तुम्हारे दिल से निकाले नहीं गये
अब रास्ते में उनकी हिफ़ाज़त करे ख़ुदा
जो साथ अपने, मां की दुआ ले नहीं गये
इक बार ही मिली थी नज़र से तेरी नज़र
आँखों से उसके बाद उजाले नहीं गये
वि सरफिरी हवा भी उड़ा ले नहीं गई
दरिया भी मुझको साथ बहा ले नहीं गये
मेरी इबादतों में रही कुछ न कुछ कमी
पत्थर के बुत ख़ुदाओं में ढाले नहीं गये
जो जिस्म पर थे सूख गये कब के ऐ 'चिराग़'
लेकिन जो रूह पर थे वो शाले नहीं गये
शाइर - शशि भूषण 'चिराग़'
6
मुझे वो मोतियों में तोल देता
अगर मैं उसके हक़ में बोल देता
दिल-ओ-जां नाम कर देता मैं उसके
मुझे जो इन का वाजिब मोल देता
खुले आकाश में उड़ सकता मैं भी
ख़ुदा जो तू मिरे पर खोल देता
किसे मजबूरियाँ होती नहीं हैं
अगर कुछ बात थी तो बोल देता
सुना कर प्यार के दो गीत मीठे
मेरे कानों में भी रस घोल देता
अगर मोहताज ही रखना था मुझको
मेरे हाथों में भी कश्कोल देता
'चिराग़' उस को यक़ीं होता जो मुझ पर
वो सारे राज़ मुझ पर खोल देता
शाइर - शशि भूषण 'चिराग़'
7
सबकी सुनता है और अपनी कहता है
दीवाना है अपनी मौज में रहता है
बहते दरिया मिल जाते हैं सागर में
सागर तो अपने ही अंदर बहता है
तुझ को कोई होश नहीं परवाह नहीं
किस की याद में खोया-खोया रहता है
रहती है उन आँखों में खामोशी सी
क्या जाने उस दिल में क्या क्या रहता है
कौन 'चिराग़' किसी का महरम दुनिया में
कौन किसी से दिल की बातें कहता है
शाइर - शशि भूषण 'चिराग़'
--
रवि कांत 'अनमोल'
हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें
अपने हज़ार चेहरे हैं, सारे हैं दिलनशीं
किसके वफ़ा निभाएं हम किससे जफ़ा करें
नंबर मिलाया फ़ोन पर दीदार कर लिया
मिलना सहल हुआ है तो अक्सर मिला करें
तेरे सिवा तो अपना कोई हमज़ुबां नहीं
तेरे सिवा करें भी तो किस से ग़िला करें
दी है कसम उदास न रहने की तो बता
जब तू न हो तो कैसे हम ये मोजिज़ा करें
--
रवि कांत 'अनमोल'
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बर्फ़ ख़ाबों की जो पिघली ज़िहन में
आँख से कोई नदी सी बह गई
मैं भी तन्हा हो गया हो कर जुदा
और वो लड़की अकेली रह गई
आसमानों ने सितम ढाये बहुत
वो तो धरती थी कि सब कुछ सह गई
फूल डाली पर लगा है झूमने
कान में उसके हवा क्या कह गई
--
रवि कांत 'अनमोल'
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मेरे देस की मिट्टी है जो
रंग फ़ज़ा में घोल रही है
जीवन की नन्ही सी चिड़िया
उड़ने को पर तोल्र रही है
कोई मीठी बात अभी तक
कानों में रस घोल रही है
मोल नहीं कुछ उस दौलत का
जो कल तक अनमोल रही है
बाहर उसकी गूँज ज़ियादा
जिसके अंदर पोल रही है
देखें क्या होता है आगे
अब तक धरती गोल रही है
तू भी उसके पीछे हो ले
जिसकी तूती बोल रही है
दिए जो ख़ाब हमने ऊँचे-ऊँचे
उन्हीं में नन्हा बचपन खो गया है
महब्बत में समझदारी मिला दी
हमारा बावरापन खो गया है
जहा की दौलतें तो मिल गई हैं
कहीं अख़लाक का धन खो गया है
सुरीली बांसुरी की धुन सुनाकर
कहां वो मद-न-मोह-न खो गया है
रवि कांत 'अनमोल'
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सर ढकने को छत मिलती तो अच्छा था
किस्मत में हैं चंद सितारे क्या कीजे
टूटे सपने अंधी आँखों में लेकर
मर जाते हैं लोग बेचारे क्या कीजे
जिन लोगों ने दुनिया की ख़ातिर सोचा
वो फिरते हैं मारे मारे क्या कीजे
या तो वो बहरे हैं जिनको सुनना था
या गूँगे हैं गीत हमारे क्या कीजे
शायर की आँखों में आग न पानी है
प्यासे हैं हम नदी किनारे क्या कीजे
--
रवि कांत 'अनमोल'
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हमेशा आइनों से झाँकता है
न जाने क्या वो मुझसे चाहता है
वो अपनी हर नज़र से हर अदा से
हज़ारों राज़ मुझपे खोलता है
मैं जितना इस जहाँ को देखता हूँ
मेरे अंदर कहीं कुछ टूटता है
जवाब उनके नहीं मिलते कहीं से
सवाल ऐसे मेरा दिल पूछता है
मैं शायद ख़ुद को खो के तुम को पा लूँ
मगर इतना कहाँ अब हौसला है
मैं पल पल सुन रहा हूँ बात उसकी
मेरे कानों में कोई बोलता है
--
रवि कांत 'अनमोल'
मेरी कविता
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सरह्दें ही सरहदें हैं हर तरफ़
क्या जगह है? मुझको ले आए कहां?
झड़ गए पत्ते तो शाख़ें कट गई
अब दरख़्तों में हैं वो साए कहां
आम का वो पेड़ कब का कट चुका
कोयल अब गाए भी तो गाए कहां
खेल कर होली हमारे ख़ून से
पल में खो जाते हैं वो साए कहां
जिनमें कुछ इनसानियत हो, प्यार हो
अब मिलेंगे ऐसे हमसाए कहां
(हमसाए=पड़ोसी)
जिनको गाने के लिए आए थे हम
हमने अब तक गीत वो गाए कहां
--
रवि कांत 'अनमोल'
मेरी नज़्में http://aazaadnazm.blogspot.com
दोस्ती को मात मत कर दोस्ती के नाम पर
इस तरह की बात मत कर दोस्ती के नाम पर
गर भरोसा उठ गया है हाथ मेरा छोड़ दे
तल्ख़ यूं जज़्बात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझपे पहले ही ज़माने भर के हैं एहसां बहुत
और एहसानात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझसे कोई बात कर अच्छी बुरी, खोटी ख़री
हाँ मगर कुछ बात मत कर दोस्ती के नाम पर
मैं बड़ी मुश्क़िल से जीता हूँ दिलों के खेल में
अब ये बाज़ी मात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझको मेरे हाल पर रहने दे ऐ मेरे हबीब
रहम की ख़ैरात मत कर दोस्ती के नाम पर
दोस्ती बदनाम हो जाए न दुनिया में कहीं
ऐसी वैसी बात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझसे रिश्ता तोड़ता है तोड ले तू हाँ मगर
आग की बरसात मत कर दोस्ती के नाम पर
दोस्ती एहसास है एहसास रहने दे इसे
बहस यूं दिन रात मत कर दोस्ती के नाम पर
--
रवि कांत 'अनमोल'
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मेरी नज़्में
प्यार की दोस्ती की बात करें
आइए ज़िन्दगी की बात करें
कोई हासिल नहीं है जब इसका
किस लिए दुश्मनी की बात करें
ज़िक्र हो तेरी अक़्लो-दानिश का
मेरी दीवानगी की बात करें
आप नज़दीक जब नहीं तो फिर
किस से हम अपने जी की बात करें
बीती बातों में कुछ नहीं रक्खा
बैठिए हम अभी की बात करें
बात कुछ आपकी हो मेरी हो
और हम क्यूं किसी की बात करें
--
रवि कांत 'अनमोल'
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मेरी नज़्में
राह तकती हो रात दिन जिसकी,
वो कभी लौट कर न आएगा
वो तिरा लाडला कभी फिर से,
तेरे पैरों को छू न पाएगा
कर सकेगा न रसभरी बातें,
ला सकेगा न अब वो सौग़ातें
लोग कहते हैं देश की ख़ातिर
जान कुर्बान कर गया है वो
उसने राहे वतन पे हँस हँस के
जान दे दी है मर गया है वो
एसी बातों पे मत यकीं करना
लोग झूटे हैं बात झूटी है
लाल तेरा मरा नहीं अम्मा
वो तिरा लाल मर नहीं सकता
देश के रास्ते पे चलते हुए
देश में लीन हो गया है वो
बन के ख़ुश्बू वतन की मिट्टी की
इन हवाओं में खो गया है वो
देश का इक जवान था पहले
आज कुल देश हो गया है वो
आज से कुल वतन तिरा बेटा
आज से तू वतन की अम्मा है
देश का हर जवान हर बच्चा
तेरा वेटा है तेरा अपना है
रवि कांत 'अनमोल'
नागालैंड की वादियों में
(अगस्त २००६ में मोकोकचुंग-नागालैंड में लिखी गई कविता)
ये बादल इस तरह उड़ते हैं जैसे
कोई आवारा पंछी उड़ रहा हो।
पहाड़ों की ढलानों से सटे से
हरे पेड़ों की डालों से निकल के
उन उँची चोटियों पर बैठते हैं।
और उसके बाद गोताखोर जैसे
उतर जाते हैं इन गहराइयों में
पहुँच जाते हैं गहरी खाइयों में।
सड़क जो इस पहाड़ी से है लिपटी
कभी हैरत से उसको देखते हैं
कभी सहला के उसको पोंछते हैं
कभी पल भर में कर देते हैं गीला
भिगो देते हैं चलती गाड़ियों को।
ये बादल इस तरह से खेलते हैं
कि जैसे हो कोई बच्चों की टोली
कभी हँसते हैं रो लेते हैं ख़ुद ही
कहाँ परवाह दुनिया की है इनको
जहाँ के रंजो-ग़म से दूर हैं ये,
फ़क़ीरों की तरह हैं मस्तमौला
न जाने किस नशे में चूर हैं ये।
रवि कांत 'अनमोल'
पूर्वोत्तर भारत (फ़रवरी २००६ में शिलांग में लिखी गई कविता)
ये वादियों में दूर तक फैली हुई झीलें
गाहे-बगाहे इनमें नज़र आती किश्तियाँ
जंगल के बीच बीच में लहराती ये सड़कें
गाहे-बगाहे उनपे आती जाती गाड़ियाँ
सरसब्ज़ पहाड़ों की सियह रंग यह मिट्टी
मिट्टी से खेलते हुए मासूम से बच्चे
ये चाय के बागों में गा के झूमती परियाँ
जंगल में काम करते कबीले के लोगबाग
मिट्टी से सराबोर मिट्टी के दुलारे
बाँसों के झुरमुटों में मचलती ये हवाएँ
हैरत में डालती हुई ये शोख़ घटाएँ
दिल खींच रहे हैं तेरे रंगीन नज़ारे
आकाश से उतरा है जो ये हुस्न ज़मीं पर
जी चाहता है आज कि ऐ बादलों के घर १
ये हुस्न तेरी वादियों का साथ ले चलूँ।
तेरी ज़ुल्फ़ों की छाँव
अमावस की रात से भी अंधेरी है
लेकिन मेरे दुःखों का अंधेरा
उससे ज़्यादा घना है।
तेरे जिस्म से
फूलों से भी अच्छी सुगंध आती है
लेकिन मुझे रोटी की सुगंघ
उससे भी अच्छी लगती है।
तेरी भावनाओं में
मुझे पता है
बहुत गर्मी है
लेकिन
सर्दी से बजती हुई हड्डियों को
चुप कराने के लिए
वो काफ़ी नहीं है।
रवि कांत 'अनमोल'
भाषा भावनाओं को प्रकट करती है
यह पढ़ा था
लेकिन जब भावनाएं
शब्दों में ढलने से इनकार कर दें
और जब शब्द
भवनाओं के हमजोली न हों।
तो तुम ही कहो
मैं क्या कहूँ, क्या लिखूँ?
तुम्हें मैं रोज़ ही एक चिट्ठी लिखता हूँ,
सोच के कागज़ पर
क्लपना की कलम से।
शब्द उसके कुछ धुँधले होते हैं
पर भाव सटीक साफ़।
और रोज़ ही
मुझे तुम्हारा उत्तर मिलता है।
रोज़ ही मैं तुमसे मिलता हूँ
अपनी कहता हूँ
तुम्हारी सुनता हूँ।
लेकिन शब्दों का सहारा लिए बिना।
क्योंकि मेरे लिए
भाव एक चीज़ हैं और शब्द बिल्कुल दूसरी
भाव सूक्ष्म हैं और शब्द स्थूल
भाव निर्मल हैं और शब्द मलिन
भाव ब्रह्म हैं और शब्द संसार
इसलिए भाव कभी शब्दों में नहीं बंधते।
इसीलिए शब्द भावों के हमजोली नहीं होते।
भाव लिखे नहीं जाते और न कहे जाते हैं।
फिर भी
तुम्हारे आग्रह पर ऐ दोस्त
मैं कागज़ कलम लिए बैठा हूँ
अब तुम ही बताओ
मैं क्या कहूँ?
क्या लिखूँ?
विरासत
(कारगिल हमले के समय
पाकिस्तान के नाम लिखा गया पत्र)
मैने तो दोस्ती का हाथ
तुम्हारी तरफ़ बढाया था।
क्योंकि हम दोनो
केवल पड़ोसी नहीं
भाई नहीं
बल्कि एक ही शरीर के
दो टुकड़े हैं।
चलो, फिर से एक होना
हमारी तक़दीर में न भी सही
पर एक साथ रहना तो
हमारी मजबूरी है।
फिर प्यार मुहब्बत से
क्यों न रहें?
बस यही सोच कर
मैंने दोस्ती का तुम्हारी ओर
बढ़ाया था।
पर तुमने
मेरे हाथ को पकड़ कर
धोखे का खंजर घोंप दिया
मेरी ही बगल में।
पता नहीं
यह तुम्हारी फितरत है,
तुम्हारा पागलपन है,
या किसी और की शह।
लेकिन जो भी हो,
तुम्हारे इस वार का करारा जवाब देना
अब मेरा फ़र्ज़ बन गया है।
ताकि अगली बार
ऐसी हिमाकत करने से पहले
तुम्हें सात बार सोचना पड़े।
ताकि सारी दुनिया जान ले
कि प्यार और दोस्ती
मेरी संस्कृति है, कमज़ोरी नहीं।
शांति यदि मेरी चाहत है
तो वीरता मेरी विरासत है।
सिर्फ़ दरवेश का स्वभाव ही नहीं
मेरे पास सिपाही का हौसला भी है।
प्यार से सभी को
सीने से लगाने वाले बाजुओं में
शत्रु को मसल डालने की ताकत भी है।
यह बात मैं एक बार फिर
सारी दुनिया के सामने साबित कर दूँगा।
और सच मानो
इसके बाद फिर तुम्हारी ओर दोस्ती का हाथ
मैं ज़रूर बढ़ाऊँगा
प्यार का पैग़ाम
फिर आएगा मेरी ओर से
क्योंकि मुझे विरासत में
सिपाही का हौसला ही नहीं
सभी का भला मांगने वाला
दरवेश का दिल भी मिला है।
रवि कांत 'अनमोल'
रवि कांत 'अनमोल'
आज़ाद नज़्म, छन्दबद्ध अथवा पाबन्द नज़्म से इन अर्थों में अलग है कि इसमें हमारे भाव बहुत तेज़ी से उफ़न कर बाहर आते हैं और हमें इतना समय ही नहीं देते कि हम छन्द के बारे में कुछ सोच पाएं,बह्र को समझ पाएं। इस तरह आज़ाद नज़्म बहुधा अधिक प्राकृतिक और अधिक भावपूर्ण रहती है, लेकिन इससे बह्र और छन्द का महत्व समाप्त नहीं होता। बह्र और छन्द का अभ्यास होने से हमारे विचार लयबद्ध रूप में ही निकलते हैं और यदि कभी भावों का प्रवाह स्वछ्न्द रूप से भी होता है तब भी लयात्मक्ता अपने आप उनमें आ जाती है और आज़ाद नज़्म में भी एक तरह की लय आ जाती है। लय ही तो है जो कविता को कविता बनाती है। बहुत अधिक अभ्यासी हो जाने पर कवि छन्दसिद्ध हो जाता है और फिर वह जो भी कहता है स्वभाविक रूप से छन्दबद्ध होकर ही उसकी ज़ुबान से निकलता है, कवि के लिए यह आदर्श स्थिति है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, नज़ीर अकबराबादी और मिर्ज़ा ग़ालिब इत्यादि कई कवियों के साथ ऐसा ही था। वे किसी भी विषय पर किसी भी समय आशुकविता करने की योग्यता रखते थे। भाव उनकी ज़ुबान पर आते ही छन्दबद्ध हो जाते थे। ऐसी स्थिति प्राप्त करना हर किसी के बस की बात नहीं है- आज के व्यस्तता भरे समय में तो बिल्कुल भी नहीं। ऐसे में मेरे जैसे कम अभ्यास वाले लोगों के मन में जो तीव्र भाव आते हैं, यदि उन्हें छन्द में ढालने के लिए थोड़ा रुकना पड़े तो उनकी तीव्रता में कमी आने की संभावना रहती है। जब ऐसी स्थिति हो तो मुक्त छन्द कविता लिखना या आज़ाद नज़्म कहना भी वाजिब ही है। वैसे छन्द का अभ्यास भी करते रहना चाहिए जिससे विचार छन्द में न सही, कम से कम लय में तो निकलें ही।
मेरी आज़ाद नज़्म भी एक अभ्यासार्थी के तीव्र भावावेगों का प्रवाह ही है- कुछ स्वछ्न्द, कुछ लयात्मक।
रवि कांत अनमोल