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Friday, January 22, 2010

शहीद की माँ से

राह तकती हो रात दिन जिसकी,
वो कभी लौट कर न आएगा
वो तिरा लाडला कभी फिर से,
तेरे पैरों को छू न पाएगा
कर सकेगा न रसभरी बातें,
ला सकेगा न अब वो सौग़ातें
लोग कहते हैं देश की ख़ातिर
जान कुर्बान कर गया है वो
उसने राहे वतन पे हँस हँस के
जान दे दी है मर गया है वो

एसी बातों पे मत यकीं करना
लोग झूटे हैं बात झूटी है
लाल तेरा मरा नहीं अम्मा
वो तिरा लाल मर नहीं सकता
देश के रास्ते पे चलते हुए
देश में लीन हो गया है वो
बन के ख़ुश्बू वतन की मिट्टी की
इन हवाओं में खो गया है वो
देश का इक जवान था पहले
आज कुल देश हो गया है वो

आज से कुल वतन तिरा बेटा
आज से तू वतन की अम्मा है
देश का हर जवान हर बच्चा
तेरा वेटा है तेरा अपना है

रवि कांत 'अनमोल'

नागालैंड की वादियों में

नागालैंड की वादियों में
(अगस्त २००६ में मोकोकचुंग-नागालैंड में लिखी गई कविता)
ये बादल इस तरह उड़ते हैं जैसे
कोई आवारा पंछी उड़ रहा हो।
पहाड़ों की ढलानों से सटे से
हरे पेड़ों की डालों से निकल के
उन उँची चोटियों पर बैठते हैं।
और उसके बाद गोताखोर जैसे
उतर जाते हैं इन गहराइयों में
पहुँच जाते हैं गहरी खाइयों में।
सड़क जो इस पहाड़ी से है लिपटी
कभी हैरत से उसको देखते हैं
कभी सहला के उसको पोंछते हैं
कभी पल भर में कर देते हैं गीला
भिगो देते हैं चलती गाड़ियों को।
ये बादल इस तरह से खेलते हैं
कि जैसे हो कोई बच्चों की टोली
कभी हँसते हैं रो लेते हैं ख़ुद ही
कहाँ परवाह दुनिया की है इनको
जहाँ के रंजो-ग़म से दूर हैं ये,
फ़क़ीरों की तरह हैं मस्तमौला
न जाने किस नशे में चूर हैं ये।

रवि कांत 'अनमोल'

सम्मान



मेरा सम्मान मत करना
क्योंकि मैं एक इंसान हूँ
और इंसान में होती हैं
सौ बुराइयाँ भी
सौ कमज़ोरियाँ भी।
इंसान में होते हैं
सौ अवगुण भी
सौ दोष भी।
इसलिए
मुझे सम्मानित हर्ग़िज़ मत करना
क्योंकि जो हार तुम मुझे पहनाओगे
वही पहन लेंगी मेरी कमज़ोरियाँ भी
जिस आसन पर तुम मुझे बैठाओगे
मेरे साथ उसी पर बैठेंगे
मेरे दोष भी।
और मेरे दोस्त!
आसन पर बैठे हुए दोषों से बुरा
कुछ नहीं होता।
आसन पर बैठे दोष
दोषी बना देते हैं एक युग को।
सिंहासन पर बैठी कमज़ोरियाँ
कमज़ोर बना देती हैं एक पीढ़ी को।
इस लिए मत सम्मान देना मुझे
मेरे दोषों और कमज़ोरियों के साथ।
अगर कोई एकाध अच्छाई
मिल जाए मुझमें
तो सम्मान देना उसे।
मेरा नाम लिए बग़ैर
उसे पहनाना श्रद्धा के हार
और बैठा लेना
ह्रदय के सिंहासन पर
उसे।
मुझे नहीं।
क्योंकि मैं एक इंसान हूँ
और इंसान में होती हैं
सौ कमज़ोरियाँ भी,
सौ बुराइयाँ भी।
रवि कांत 'अनमोल'

पूर्वोत्तर भारत

पूर्वोत्तर भारत (फ़रवरी २००६ में शिलांग में लिखी गई कविता)

ये वादियों में दूर तक फैली हुई झीलें
गाहे-बगाहे इनमें नज़र आती किश्तियाँ
जंगल के बीच बीच में लहराती ये सड़कें
गाहे-बगाहे उनपे आती जाती गाड़ियाँ
सरसब्ज़ पहाड़ों की सियह रंग यह मिट्टी
मिट्टी से खेलते हुए मासूम से बच्चे
ये चाय के बागों में गा के झूमती परियाँ
जंगल में काम करते कबीले के लोगबाग
मिट्टी से सराबोर मिट्टी के दुलारे
बाँसों के झुरमुटों में मचलती ये हवाएँ
हैरत में डालती हुई ये शोख़ घटाएँ
दिल खींच रहे हैं तेरे रंगीन नज़ारे
आकाश से उतरा है जो ये हुस्न ज़मीं पर
जी चाहता है आज कि ऐ बादलों के घर १
ये हुस्न तेरी वादियों का साथ ले चलूँ।

१. मेघालय
 
रवि कांत 'अनमोल'

कविता

तुम एक कविता ही तो हो
एक सजीव कविता
तुम ही तो कारण हो
मेरे हाथों लिखे जाते इन अक्षरों का
तुम ही तो मेरी आँखों के रास्ते मेरी आत्मा में उतरती हो
और फिर अक्षर बन कर, संगीत बन कर,
आनन्द  बन कर और सच्चाई बन कर
फूटती हो मेरी कलम से, मेरे मन से, मेरी जिह्वा से।
तुम्हारा हँसना, रूठना, उठना, बैठना, चलना
तुम्हारा देखना और न देखना
सभी कुछ कविता है संगीत है।
तुम्हारा दीद कविता है, तुम्हारी तलाश कविता है,
तुम्हारा मिलना कविता है, तुम्हारी जुदाई कविता है।
तुम रस की फुहार हो और मैं जन्मों क प्यासा।
तुम्हारा होना भी,तुम्हारा न होना भी
दोनो मेरे दिल को छूते हैं,झकझोरते हैं।
और फिर शब्द पैदा होते हैं
जो तुम्हारे रूप का प्रतिबिंब होते हैं।
लोग इन्हें कविता कहते हैं
लेकिन वास्तविक कविता तो तुम ही हो
और मैं तुम्हारा श्रोता।

 रवि कांत 'अनमोल'

पत्थर

पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो ऐसे बदनसीब होते हैं,
जिन्हें ईश्वर ने, ठोकरें खाने के लिए बनाया है।
कभी हवा, कभी पानी और कभी अपने ही साथियों की
ठोकरें खाते, बेचारे सारी उम्र भटकते रहते हैं
और अंत में उम्र बिता कर रेत हो जाते हैं।
पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो सज़ा काटने आई आत्माएं होते हैं
जिनके लिए ईश्वर ने हर तकलीफ़ का इंतज़ाम किया है
धूप,आँधी,,बारिश,बाढ़, ठोकरें और लानतें
सब कुछ इनके लिए ही होता है।
सभी कुछ झेलते-झेलते बेचारे पत्थर?
अपना पत्थरपन भी अंत में गँवा बैठते हैं।
पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो टूटी फूटी चट्टाने होते हैं।
जो कभी हवा कभी पानी के बहाव में आकर
आपस में टकरा-टकरा कर चूर-चूर होते रहते हैं।
कोई बाहरी ताक़त इन्हें कम ही तोड़ती है।
ये आपस में ही एक दूसरे को तोड़-फोड़ कर
रेत कर लेते हैं।
पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो मेरे देश के शोषित-शासित लोग होते हैं।
जिन्हें यह भी नहीं पता कि जब पत्थर मिल कर रहते हैं
तो चट्टान कहलाते हैं,
और कोई आँधी,कोई तूफ़ान, कोई बारिश या बाढ़
चट्टान का कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
पत्थर जब एक दूसरे की हिफ़ाज़त में खड़े होते हैं
तो वक़्त की चाल धीमी पड़ जाती है।
पत्थर-बेचारे अनजान पत्थर
सिर्फ़ इतना ही जानते हैं
कि पानी या हवा के बहकावे में आकर
आपस में टकराना है।
मूर्तियां बन कर बैठे अपने ही साथियों से
धोखा खाना है।
अंततः आपस में टकरा-टकरा कर रेत हो जाना है।
पत्थर-शायद पत्थर ही होते हैं।
पगले पत्थर।

रवि कांत 'अनमोल'

मूल पंजाबी कविता

ਪੱਥਰ
ਪੱਥਰ, ਪੱਥਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ
ਇਹ ਤਾਂ ਓਹ ਬਦਨਸੀਬ ਹੁੰਦੇ ਹਨ
ਜਿਹਨਾਂ ਨੂੰ ਰੱਬ ਨੇ ਠੋਕਰਾਂ ਖਾਣ ਲਈ ਬਨਾਇਆ ਹੈ|
ਕਦੇ ਹਵਾ ਕਦੇ ਪਾਣੀ ਤੇ ਕਦੇ ਆਪਣੇ ਹੀ ਸਾਥੀਆਂ ਦੀਆਂ
ਠੋਕਰਾਂ ਖਾਂਦੇ, ਵਿਚਾਰੇ ਸਾਰੀ ਉਮਰ ਭਟਕਦੇ ਫ਼ਿਰਦੇ ਨੇ
ਤੇ ਆਖ਼ਰ ਉਮਰ ਭੋਗ ਕੇ ਰੇਤ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਨੇ

ਪੱਥਰ, ਪੱਥਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ
ਇਹ ਤਾਂ ਸਜ਼ਾ ਭੋਗਣ ਆਈਆਂ ਰੂਹਾਂ ਹੁੰਦੇ ਨੇ
ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਲਈ ਰੱਬ ਨੇ ਹਰ ਤਸੀਹੇ ਦਾ ਇੱਤਜ਼ਾਮ ਕੀਤਾ ਹੈ|
ਧੁੱਪ, ਹਨੇਰੀ, ਬਾਰਸ਼, ਹੜ੍ਹ ਠੋਕਰਾਂ ਤੇ ਲਾਹਨਤਾਂ
ਸਾਰਾ ਕੁਝ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲਈ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ|
ਸਭ ਕੁਝ ਝੱਲਦੇ-ਝੱਲਦੇ ਵਿਚਾਰੇ ਪੱਥਰ
ਆਪਣਾ ਪੱਥਰਪੁਣਾ ਵੀ ਆਖਰ ਨੂੰ ਗਵਾ ਬਹਿੰਦੇ ਨੇ|

ਪੱਥਰ, ਪੱਥਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ
ਇਹ ਤਾਂ ਟੁੱਟੀਆਂ ਭੱਜੀਆਂ ਚੱਟਾਨਾਂ ਹੁੰਦੇ ਨੇ|
ਜਿਹੜੇ ਕਦੇ ਹਵਾ ਤੇ ਕਦੇ ਪਾਣੀ ਦੇ ਰੋੜ੍ਹ 'ਚ ਆ ਕੇ
ਆਪਸ 'ਚ ਟਕਰਾ ਟਕਰਾ ਕੇ ਚੂਰੋ-ਚੂਰ ਹੋਈ ਜਾਂਦੇ ਨੇ|
ਕੋਈ ਬਾਹਰੀ ਤਾਕਤ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਘੱਟ ਹੀ ਤੋੜਦੀ ਹੈ|
ਇਹ ਆਪਸ 'ਚ ਹੀ ਇੱਕ ਦੂਸਰੇ ਨੂੰ ਭੰਨ ਤੋੜ ਕੇ
ਰੇਤ ਕਰੀ ਜਾਂਦੇ ਨੇ|

ਪੱਥਰ, ਪੱਥਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ
ਇਹ ਤਾਂ ਮੇਰੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਸ਼ੋਸ਼ਤ ਸ਼ਾਸਿਤ ਲੋਕ ਹੁੰਦੇ ਨੇ
ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਇਹ ਵੀ ਨਹੀਂ ਪਤਾ ਕਿ ਜਦ ਪੱਥਰ ਜੁੜ ਕੇ ਬਹਿੰਦੇ ਨੇ
ਤਾਂ ਚੱਟਾਨ ਅਖਵਾਉਂਦੇ ਨੇ|
ਤੇ ਕੋਈ ਨ੍ਹੇਰੀ, ਕੋਈ ਝੱਖੜ, ਕੋਈ ਬਾਰਸ਼ ਜਾਂ ਹੜ੍ਹ
ਚੱਟਾਨ ਦਾ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਵਿਗਾੜ ਸਕਦਾ|
ਪੱਥਰ ਜਦ ਇੱਕ ਦੂਸਰੇ ਦੀ ਹਿਫ਼ਾਜ਼ਰ 'ਚ ਖੜੇ ਹੁੰਦੇ ਨੇ
ਤਾਂ ਵਕਤ ਦੀ ਚਾਲ ਮੱਠੀ ਪੈ ਜਾਂਦੀ ਹੈ|

ਪੱਥਰ- ਵਿਚਾਰੇ ਅਣਜਾਣ ਪੱਥਰ
ਸਿਰਫ਼ ਇਹੋ ਜਾਣਦੇ ਨੇ
ਕਿ ਪਾਣੀ ਜਾਂ ਹਵਾ ਦੇ ਬਹਿਕਾਵੇ 'ਚ ਆ ਕੇ
ਆਪਸ 'ਚ ਟਕਰਾਉਣਾ ਹੈ
ਮੂਰਤੀਆਂ ਬਣ ਆਸਨ ਤੇ ਬੈਠੇ
ਆਪਣੇ ਹੀ ਸਾਥੀਆਂ ਤੋਂ ਧੋਖਾ ਖਾਣਾ ਹੈ
ਤੇ ਆਖਰ ਆਪਸ 'ਚ ਹੀ ਟਕਰਾ ਕੇ ਰੇਤ ਹੋ ਜਾਣਾ ਹੈ|
ਪੱਥਰ- ਸ਼ਾਇਦ ਪੱਥਰ ਹੀ ਹੁੰਦੇ ਨੇ
ਝੱਲੇ ਪੱਥਰ|

तू और मैं

तेरी ज़ुल्फ़ों की छाँव
अमावस की रात से भी अंधेरी है
लेकिन मेरे दुःखों का अंधेरा
उससे ज़्यादा घना है।
तेरे जिस्म से
फूलों से भी अच्छी सुगंध आती है
लेकिन मुझे रोटी की सुगंघ
उससे भी अच्छी लगती है।
तेरी भावनाओं में
मुझे पता है
बहुत गर्मी है
लेकिन
सर्दी से बजती हुई हड्डियों को
चुप कराने के लिए
वो काफ़ी नहीं है।

रवि कांत 'अनमोल'

क्या लिखूँ?

भाषा भावनाओं को प्रकट करती है
यह पढ़ा था
लेकिन जब भावनाएं
शब्दों में ढलने से इनकार कर दें
और जब शब्द
भवनाओं के हमजोली न हों।
तो तुम ही कहो
मैं क्या कहूँ, क्या लिखूँ?

तुम्हें मैं रोज़ ही एक चिट्ठी लिखता हूँ,
सोच के कागज़ पर
क्लपना की कलम से।
शब्द उसके कुछ धुँधले होते हैं
पर भाव सटीक साफ़।
और रोज़ ही
मुझे तुम्हारा उत्तर मिलता है।
रोज़ ही मैं तुमसे मिलता हूँ
अपनी कहता हूँ
तुम्हारी सुनता हूँ।
लेकिन शब्दों का सहारा लिए बिना।
क्योंकि मेरे लिए
भाव एक चीज़ हैं और शब्द बिल्कुल दूसरी
भाव सूक्ष्म हैं और शब्द स्थूल
भाव निर्मल हैं और शब्द मलिन
भाव ब्रह्म हैं और शब्द संसार
इसलिए भाव कभी शब्दों में नहीं बंधते।
इसीलिए शब्द भावों के हमजोली नहीं होते।
भाव लिखे नहीं जाते और न कहे जाते हैं।
फिर भी
तुम्हारे आग्रह पर ऐ दोस्त
मैं कागज़ कलम लिए बैठा हूँ
अब तुम ही बताओ
मैं क्या कहूँ?
क्या लिखूँ?

 
रवि कांत 'अनमोल'

विरासत

विरासत
(कारगिल हमले के समय
पाकिस्तान के नाम लिखा गया पत्र)
मैने तो दोस्ती का हाथ
तुम्हारी तरफ़ बढाया था।
क्योंकि हम दोनो
केवल पड़ोसी नहीं
भाई नहीं
बल्कि एक ही शरीर के
दो टुकड़े हैं।
चलो, फिर से एक होना
हमारी तक़दीर में न भी सही
पर एक साथ रहना तो
हमारी मजबूरी है।
फिर प्यार मुहब्बत से
क्यों न रहें?
बस यही सोच कर
मैंने दोस्ती का तुम्हारी ओर
बढ़ाया था।
पर तुमने
मेरे हाथ को पकड़ कर
धोखे का खंजर घोंप दिया
मेरी ही बगल में।
पता नहीं
यह तुम्हारी फितरत है,
तुम्हारा पागलपन है,
या किसी और की शह।
लेकिन जो भी हो,
तुम्हारे इस वार का करारा जवाब देना
अब मेरा फ़र्ज़ बन गया है।
ताकि अगली बार
ऐसी हिमाकत करने से पहले
तुम्हें सात बार सोचना पड़े।
ताकि सारी दुनिया जान ले
कि प्यार और दोस्ती
मेरी संस्कृति है, कमज़ोरी नहीं।
शांति यदि मेरी चाहत है
तो वीरता मेरी विरासत है।
सिर्फ़ दरवेश का स्वभाव ही नहीं
मेरे पास सिपाही का हौसला भी है।
प्यार से सभी को
सीने से लगाने वाले बाजुओं में
शत्रु को मसल डालने की ताकत भी है।
यह बात मैं एक बार फिर
सारी दुनिया के सामने साबित कर दूँगा।
और सच मानो
इसके बाद फिर तुम्हारी ओर दोस्ती का हाथ
मैं ज़रूर बढ़ाऊँगा
प्यार का पैग़ाम
फिर आएगा मेरी ओर से
क्योंकि मुझे विरासत में
सिपाही का हौसला ही नहीं
सभी का भला मांगने वाला
दरवेश का दिल भी मिला है।

रवि कांत 'अनमोल'

जीवन ढंग

कमियों की बेमौसम बरसात से लड़ते लड़ते
जीवन हारवैस्टर के नीवे से निकल चुके
खेत जैसा हो चुका है।
सिरविहीन अधूरी इच्छाएं, बेमतलब खड़ी हैं।
विचारों का हल च्लाने से पहले
इन्हें जलाना पड़ेगा
और फिर शायद नई दिशाओं का बीज डाल कर
दोबारा, लक्ष्यों की फ़सल उगाई जाएगी।

रवि कांत 'अनमोल'

दैत्य

प्रतीक्षा के दैत्य ने
मेरे जीवन के एक और दिन को
अपने ज़ालिम जबड़ों से
चबा चबा कर खाया
और मैं बेबस सा
इस क्रूरता को देखता रहा-झेलता रहा।
तेरा पैग़ाम फ़रिश्ता बन कर
पता नहीं कब आएगा
और पता नहीं कब
इस दैत्य का अंत होगा।

रवि कांत 'अनमोल'

प्रश्न

मैं क्या हूँ? क्यों हूँ?
यही प्रश्न अभी तक अनुत्तरित पड़े हैं।
तो क्यों,
तुम्हारे अस्तित्तव का प्रश्न उठाया जाए?
जब मैं स्वयं ही एक प्रश्न हूँ
तो किसी और प्रश्न का उत्तर
क्यों ढूंढता फिरूँ?
अभी तो मुझे
स्वयं का पता लगाना है।
अपनी ही गुत्थियों को
सुलझाना है।
उसके बाद सोचा जाएगा
कि
तुम क्या हो?
हो भी या नहीं?
हो,
तो क्यों हो?
नहीं हो,
तो क्यों नहीं हो?
किन्तु यह सब प्रश्न
अभी क्यों उठाए जाएं?
अभी तो मैं स्वयं ही
एक प्रश्न हूँ।
तुम सा ही कठिन
या तुम से भी कठिन।
और मुझे तलाश है
अपने उत्तर की, तुम्हारे नहीं।

रवि कांत 'अनमोल'

तांडव

भूख
जब नंगी होकर नाचती है
ज़मीर जल कर राख हो जाता है
और नैतिकता पैरों पर गिर पड़ती है
त्राहि त्राहि कर उठती है
शायद इसी नृत्य को
तांडव कहते हैं

रवि कांत 'अनमोल'

डैम

अरमानों की एक नदी
मेरे अंदर भी उफ़नती है
लेकिन मजबूरियों का डैम
उसे खुल कर बहने नहीं देता
बाँध लेता है उसे
समझौतों की
असंख्य नहरों में बहाने के लिए

रवि कांत अनमोल

मैं मालिक हूँ


मैं मालिक हूँ
यह मुल्क मेरा है।
ये घर, ये गलियां,
ये खेत, ये क्यारियां,
ये बाग़, बग़ीचे, फुलवारियां,
ये जंगल, पहाड़ मैदान,
ये झरने, नहरें, दरिया,
ये पोखर, कुएं, तालाब,
ये समंदर, सब मेरे हैं ।
ये पुल, सड़कें, डैम
ये इमारतें, दफ़तर मिलें
ये कोठीयां, कारें, बंगले,
ये गाड़ीयां, मोटरें,
ये जहाज़, किश्तियां, बेड़े, सब मेरे हैं ।
मैं ही सब का मालिक हूँ
क्या हुआ जो ये मेरी पहुँच में नहीं हैं ।
क्या हुआ जो मैं इन्हें छू नहीं सकता ।
पर मालिक तो मैं ही हूँ।
ये अलग बात है कि
मेरे पास साइकल भी नहीं,
मैं मोटे टाट से तन ढाँपता हूँ
और रहता हूँ सड़क किनारे, खुले आकाश तले ।
लेकिन ये बढ़िया विदेशी कारें मेरी हैं,
ये शानदार कपड़े की मिलें मेरी हैं,
और ये सजे हुए बंगले भी मेरे ही हैं।
ये अलग बात है कि मैं खाना रोज़ नहीं खाता,
दवाई कभी नहीं
और मरता हूँ सड़क पर, बेइलाज ।
लेकिन ये बड़े-बड़े अनाज गोदाम मेरे हैं,
ये आधुनिक अस्पाताल मेरे हैं।
ये दवाओं के कारखाने भी मेरे ही हैं।
इन सब का मालिक मैं ही हूँ।
मैं
हां मैं ही बादशाह हूँ इस मुल्क का,
सब जानते हैं, मानते हैं, स्वीकारते हैं।
यहाँ तक कि मुल्क के कर्ता-धर्ता भी,
समय-समय पर मुझे सलाम मारते हैं।
हर काम करने से पहले मेरा नाम लेते हैं।
चाहे कोठियां अपने सगों को देनी हों,
चाहे पैट्रोल पंप यारों में बांटने हों,
और चाहे राशन डीपुओं की नीलामी करनी हो,
सब मेरे नाम पर करते हैं
मेरी मुहर तले।
आख़िर मैं मालिक हूँ,
और यह मुल्क मेरा है।
मंत्री से संतरी तक,
ऊपर से नीचे तक,
सब मेरे ख़िदमतगार हैं,
सेवादार ।
वैसे ये सब के सब हुक्म चलाते हैं,
आज्ञा देते हैं, फ़ैसला लेते हैं।
और इनके हुक्म मुझे झेलने पड़ते हैं
इनकी इच्छाएं मुझे नंगे बदन,
बर्दाश्त करनी पड़ती हैं।
इनके विदेशी खाते
मेरे नाम पर कर्ज़ लेकर भरे जाते हैं,
इनकी पार्टियों के लिए अनाज,
मेरी थाली में से निकाला जाता है,
और इनकी महँगी कारों के लिए पैट्रोल
मेरे शरीर में से निचोड़ा जाता है ।
लेकिन फिर भी
मैं मालिक हूँ और ये सब मेरे नौकर।
बड़ी हैरत की बात है, पर हैरान न होइए,
यही तो तलिस्म है।
मेरी अंगुली पर लगने वाली,
दो बूँद स्याही,
मुझे मेरे हक़ से वंचित कर देती है।
दो बूँद स्याही
मालिक को नौकर
और नौकर को मालिक बना देती है
पाँच साल के लिए।
पूरे पाँच साल के लिए
मेरी ताकत मेरे हक़, सब कुछ छीन कर,
उनको दे देती है।
और मैं चिराग़ के जिन्न की तरह
उनका ग़ुलाम हो जाता हूं,
पाँच साल के लिए।
और पाँच साल बाद,
जब अवधि समाप्त होती है,
तब वो फिर सामने खड़े होते हैं
हाथ जोड़े, जादुई स्याही लेकर,
और मैं आज्ञाकारी गुलाम की तरह
फिर अंगुली आगे करता हूँ ।


रवि कांत अनमोल

Thursday, January 21, 2010

मेरी आज़ाद नज़्में

आज़ाद नज़्म, छन्दबद्ध अथवा पाबन्द नज़्म से इन अर्थों में अलग है कि इसमें हमारे भाव बहुत तेज़ी से उफ़न कर बाहर आते हैं और हमें इतना समय ही नहीं देते कि हम छन्द के बारे में कुछ सोच पाएं,बह्र को समझ पाएं। इस तरह आज़ाद नज़्म बहुधा अधिक प्राकृतिक और अधिक भावपूर्ण रहती है, लेकिन इससे बह्र और छन्द का महत्व समाप्त नहीं होता। बह्र और छन्द का अभ्यास होने से हमारे विचार लयबद्ध रूप में ही निकलते हैं और यदि कभी भावों का प्रवाह स्वछ्न्द रूप से भी होता है तब भी लयात्मक्ता अपने आप उनमें आ जाती है और आज़ाद नज़्म में भी एक तरह की लय आ जाती है। लय ही तो है जो कविता को कविता बनाती है। बहुत अधिक अभ्यासी हो जाने पर कवि छन्दसिद्ध हो जाता है और फिर वह जो भी कहता है स्वभाविक रूप से छन्दबद्ध होकर ही उसकी ज़ुबान से निकलता है, कवि के लिए यह आदर्श स्थिति है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, नज़ीर अकबराबादी और मिर्ज़ा ग़ालिब इत्यादि कई कवियों के साथ ऐसा ही था। वे किसी भी विषय पर किसी भी समय आशुकविता करने की योग्यता रखते थे। भाव उनकी ज़ुबान पर आते ही छन्दबद्ध हो जाते थे। ऐसी स्थिति प्राप्त करना हर किसी के बस की बात नहीं है- आज के व्यस्तता भरे समय में तो बिल्कुल भी नहीं। ऐसे में मेरे जैसे कम अभ्यास वाले लोगों के मन में जो तीव्र भाव आते हैं, यदि उन्हें छन्द में ढालने के लिए थोड़ा रुकना पड़े तो उनकी तीव्रता में कमी आने की संभावना रहती है। जब ऐसी स्थिति हो तो मुक्त छन्द कविता लिखना या आज़ाद नज़्म कहना भी वाजिब ही है। वैसे छन्द का अभ्यास भी करते रहना चाहिए जिससे विचार छन्द में न सही, कम से कम लय में तो निकलें ही।

मेरी आज़ाद नज़्म भी एक अभ्यासार्थी के तीव्र भावावेगों का प्रवाह ही है- कुछ स्वछ्न्द, कुछ लयात्मक।

रवि कांत अनमोल