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Friday, January 22, 2010

मैं मालिक हूँ


मैं मालिक हूँ
यह मुल्क मेरा है।
ये घर, ये गलियां,
ये खेत, ये क्यारियां,
ये बाग़, बग़ीचे, फुलवारियां,
ये जंगल, पहाड़ मैदान,
ये झरने, नहरें, दरिया,
ये पोखर, कुएं, तालाब,
ये समंदर, सब मेरे हैं ।
ये पुल, सड़कें, डैम
ये इमारतें, दफ़तर मिलें
ये कोठीयां, कारें, बंगले,
ये गाड़ीयां, मोटरें,
ये जहाज़, किश्तियां, बेड़े, सब मेरे हैं ।
मैं ही सब का मालिक हूँ
क्या हुआ जो ये मेरी पहुँच में नहीं हैं ।
क्या हुआ जो मैं इन्हें छू नहीं सकता ।
पर मालिक तो मैं ही हूँ।
ये अलग बात है कि
मेरे पास साइकल भी नहीं,
मैं मोटे टाट से तन ढाँपता हूँ
और रहता हूँ सड़क किनारे, खुले आकाश तले ।
लेकिन ये बढ़िया विदेशी कारें मेरी हैं,
ये शानदार कपड़े की मिलें मेरी हैं,
और ये सजे हुए बंगले भी मेरे ही हैं।
ये अलग बात है कि मैं खाना रोज़ नहीं खाता,
दवाई कभी नहीं
और मरता हूँ सड़क पर, बेइलाज ।
लेकिन ये बड़े-बड़े अनाज गोदाम मेरे हैं,
ये आधुनिक अस्पाताल मेरे हैं।
ये दवाओं के कारखाने भी मेरे ही हैं।
इन सब का मालिक मैं ही हूँ।
मैं
हां मैं ही बादशाह हूँ इस मुल्क का,
सब जानते हैं, मानते हैं, स्वीकारते हैं।
यहाँ तक कि मुल्क के कर्ता-धर्ता भी,
समय-समय पर मुझे सलाम मारते हैं।
हर काम करने से पहले मेरा नाम लेते हैं।
चाहे कोठियां अपने सगों को देनी हों,
चाहे पैट्रोल पंप यारों में बांटने हों,
और चाहे राशन डीपुओं की नीलामी करनी हो,
सब मेरे नाम पर करते हैं
मेरी मुहर तले।
आख़िर मैं मालिक हूँ,
और यह मुल्क मेरा है।
मंत्री से संतरी तक,
ऊपर से नीचे तक,
सब मेरे ख़िदमतगार हैं,
सेवादार ।
वैसे ये सब के सब हुक्म चलाते हैं,
आज्ञा देते हैं, फ़ैसला लेते हैं।
और इनके हुक्म मुझे झेलने पड़ते हैं
इनकी इच्छाएं मुझे नंगे बदन,
बर्दाश्त करनी पड़ती हैं।
इनके विदेशी खाते
मेरे नाम पर कर्ज़ लेकर भरे जाते हैं,
इनकी पार्टियों के लिए अनाज,
मेरी थाली में से निकाला जाता है,
और इनकी महँगी कारों के लिए पैट्रोल
मेरे शरीर में से निचोड़ा जाता है ।
लेकिन फिर भी
मैं मालिक हूँ और ये सब मेरे नौकर।
बड़ी हैरत की बात है, पर हैरान न होइए,
यही तो तलिस्म है।
मेरी अंगुली पर लगने वाली,
दो बूँद स्याही,
मुझे मेरे हक़ से वंचित कर देती है।
दो बूँद स्याही
मालिक को नौकर
और नौकर को मालिक बना देती है
पाँच साल के लिए।
पूरे पाँच साल के लिए
मेरी ताकत मेरे हक़, सब कुछ छीन कर,
उनको दे देती है।
और मैं चिराग़ के जिन्न की तरह
उनका ग़ुलाम हो जाता हूं,
पाँच साल के लिए।
और पाँच साल बाद,
जब अवधि समाप्त होती है,
तब वो फिर सामने खड़े होते हैं
हाथ जोड़े, जादुई स्याही लेकर,
और मैं आज्ञाकारी गुलाम की तरह
फिर अंगुली आगे करता हूँ ।


रवि कांत अनमोल

1 comment:

  1. Aapke Azad nazm kee taareef sirf
    Ek Aur Nazm aapki nazar pesh kar ke hee ho saktee hai.., Arz hai..

    'ख़याल-ए-सर्द'
    ललित अहलूवालिया 'आतिश'

    चाँद मेरा, आफ़ताब मेरा, दर्द मेरा..,
    आसमानों सा खुला ज़ख्म अभी ज़र्द मेरा !!

    ये बयाबां में परिंदों की सदायें मेरी..,
    ये महकते हुए गुलशन की हवाएं मेरी..,
    चमन मेरा, मेरी खिज़ां, गुब्बारो-गर्द मेरा !
    आसमानों सा खुला ज़ख्म अभी ज़र्द मेरा !!

    वो समंदर में उमड़ते हुए तूफां मेरे..,
    वो सफीनों में उलझते हुए अरमा मेरे..,
    दूर साहिल पे तड़पता खयाले-सर्द मेरा !
    आसमानों सा खुला ज़ख्म अभी ज़र्द मेरा !!

    चाँद मेरा, आफ़ताब मेरा, दर्द मेरा..,
    ~ 'आतिश'

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