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Saturday, September 25, 2010

ग़ज़ल :किसी की सोच है बेटे को सिंहासन दिलाना है

उसे मस्जिद बनानी है इसे मंदिर बनाना है
मुझे बस एक चिंता,कैसे अपना घर चलाना है
सियासी लोग सब चालाकियों में हैं बहुत माहिर
इन्हें मालूम है कब शाहर में दंगा कराना है

किसी का ख़ाब है मां-बाप को कुछ काम मिल जाए
किसी की सोच है बेटे को सिंहासन दिलाना है

भले अल्लाह वालों का हो झगड़ा राम वालों से
मगर पंडित का मौलाना का यारो इक घराना है

लड़ाई धर्म पर हो, जात पर हो या कि भाषा पर
लड़ाई हो! सियासत का तो बस अब ये निशाना है


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रवि कांत 'अनमोल'

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ग़ज़ल:चलें हम साथ मिल कर हाल अपना एक जैसा है

लुटे तुम मौलवी से तो हमें पंडित ने लूटा है
चलें हम साथ मिल कर हाल अपना एक जैसा है
मुहम्मद कृष्ण या जीसस कहां लड़वाते हैं हम को
सभी चरवाहे हैं, पूछो तो किस का किस से झगड़ा है
अज़ल ही से रहे हैं आदमी के सिर्फ़ दो मजहब
जिसे लूटा गया है और इक वो जिस ने लूटा है
ये जन्नत किस तरफ़ है मौलवी से पूछ कर देखो
ये बातें स्वर्ग की बस पादरी, पंडित का धोका है

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रवि कांत 'अनमोल'
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ग़ज़ल : ‘अनमोल’ अपने आप से कब तक लड़ा करें

'अनमोल' अपने आप से कब तक लड़ा करें
जो हो सके तो अपने भी हक़ में दुआ करें

हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें

अपने हज़ार चेहरे हैं, सारे हैं दिलनशीं
किसके वफ़ा निभाएं हम किससे जफ़ा करें

नंबर मिलाया फ़ोन पर दीदार कर लिया
मिलना सहल हुआ है तो अक्सर मिला करें

तेरे सिवा तो अपना कोई हमज़ुबां नहीं
तेरे सिवा करें भी तो किस से ग़िला करें

दी है कसम उदास न रहने की तो बता
जब तू न हो तो कैसे हम ये मोजिज़ा करें


--
रवि कांत 'अनमोल'

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Friday, September 24, 2010

ग़ज़ल : और वो लड़की अकेली रह गई

बिन कहे कोई कहानी कह गई
उसकी आँखों में नमी सी रह गई

बर्फ़ ख़ाबों की जो पिघली ज़िहन में
आँख से कोई नदी सी बह गई

मैं भी तन्हा हो गया हो कर जुदा
और वो लड़की अकेली रह गई

आसमानों ने सितम ढाये बहुत
वो तो धरती थी कि सब कुछ सह गई

फूल डाली पर लगा है झूमने
कान में उसके हवा क्या कह गई

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रवि कांत 'अनमोल'
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Thursday, September 23, 2010

ग़ज़ल : भला परदेस जा कर क्या करोगे

मेरी दुनिया में आकर क्या करोगे
नए सपने सजा कर क्या करोगे
वफ़ा जब खो चुकी अपने म'आनी
वफ़ा का गीत गाकर क्या करोगे
समेटो ख़ाब जो टूटे हुए हैं
नई दुनिया बसा कर क्या करोगे
तुम्हारे अपने ग़म काफ़ी हैं ऐ दिल
किसी का ग़म उठा कर क्या करोगे
ख़ुद अपने बाजुओं को आज़माओ
किसी को आज़मा कर क्या करोगे
है जब तक़दीर में रोना ही रोना
घड़ी भर मुस्करा कर क्या करोगे
मैं इक खंडहरनुमा सुनसान घर हूँ
मिरे दिल में समा कर क्या करोगे
वो रस्में जिन से तुम उकता चुके हो
वही रस्में निभा कर क्या करोगे
जब अपने घर में ही कुछ कर न पाए
भला परदेस जा कर क्या करोगे
चले आए हो जिस महफ़िल से उठकर
उसी महफ़िल में जाकर क्या करोगे
मसीहा बन के आ़ख़िर क्या मिलेगा
मसीहाई दिखा कर क्या करोगे
यहाँ हर आदमी वादा शिकन है
तुम्हीं वादे निभा कर क्या करोगे

रवि कांत 'अनमोल'
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Sunday, September 19, 2010

ग़ज़ल :अब तक धरती गोल रही है

बाग़ में कोयल बोल रही है
भेद किसी का खोल रही है

मेरे देस की मिट्टी है जो
रंग फ़ज़ा में घोल रही है

जीवन की नन्ही सी चिड़िया
उड़ने को पर तोल्र रही है

कोई मीठी बात अभी तक
कानों में रस घोल रही है

मोल नहीं कुछ उस दौलत का
जो कल तक अनमोल रही है

बाहर उसकी गूँज ज़ियादा
जिसके अंदर पोल रही है

देखें क्या होता है आगे
अब तक धरती गोल रही है

तू भी उसके पीछे हो ले
जिसकी तूती बोल रही है

Wednesday, September 1, 2010

ग़ज़ल : हमारा मिस्री माखन खो गया है ( श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर )

कहां गाँवों का गोधन खो गया है
हमारा मिस्री माखन खो गया है

दिए जो ख़ाब हमने ऊँचे-ऊँचे
उन्हीं में नन्हा बचपन खो गया है

महब्बत में समझदारी मिला दी
हमारा बावरापन खो गया है

जहा की दौलतें तो मिल गई हैं
कहीं अख़लाक का धन खो गया है

सुरीली बांसुरी की धुन सुनाकर
कहां वो मद-न-मोह-न खो गया है

रवि कांत 'अनमोल'
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