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Thursday, September 23, 2010

ग़ज़ल : भला परदेस जा कर क्या करोगे

मेरी दुनिया में आकर क्या करोगे
नए सपने सजा कर क्या करोगे
वफ़ा जब खो चुकी अपने म'आनी
वफ़ा का गीत गाकर क्या करोगे
समेटो ख़ाब जो टूटे हुए हैं
नई दुनिया बसा कर क्या करोगे
तुम्हारे अपने ग़म काफ़ी हैं ऐ दिल
किसी का ग़म उठा कर क्या करोगे
ख़ुद अपने बाजुओं को आज़माओ
किसी को आज़मा कर क्या करोगे
है जब तक़दीर में रोना ही रोना
घड़ी भर मुस्करा कर क्या करोगे
मैं इक खंडहरनुमा सुनसान घर हूँ
मिरे दिल में समा कर क्या करोगे
वो रस्में जिन से तुम उकता चुके हो
वही रस्में निभा कर क्या करोगे
जब अपने घर में ही कुछ कर न पाए
भला परदेस जा कर क्या करोगे
चले आए हो जिस महफ़िल से उठकर
उसी महफ़िल में जाकर क्या करोगे
मसीहा बन के आ़ख़िर क्या मिलेगा
मसीहाई दिखा कर क्या करोगे
यहाँ हर आदमी वादा शिकन है
तुम्हीं वादे निभा कर क्या करोगे

रवि कांत 'अनमोल'
कविता कोश पर मेरी रचनाएं
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1 comment:

  1. मैं इक खंडहरनुमा सुनसान घर हूँ
    मिरे दिल में समा कर क्या करोगे

    बढ़िया है!

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