ख़िरदमंदी मिरी मुझको
वफ़ा करने नहीं
देती
ये पागल दिल
कि मुझको बेवफ़ा
होने नहीं देता
मुस्कुराने
पर बहुत पाबंदियां
तो हैं मगर
यूँ ही थोड़ा
मुस्कुराने का इरादा
मन में है
ख़ुदा नहीं हूं
मगर मैं खुदा
से कम भी नहीं
मैं गिर भी
सकता हूं गिर
कर संभल भी
सकता हूं
है मुकद्दर में भटकन,
भटकते हैं हम
होगा तक़दीर में तो
ठहर जाएँगे
बात कुछ आपकी
हो मेरी हो
और हम क्यूं
किसी की बात
करें
अट गई जब
ज़मीन महलों से
दाल चावल कहाँ
से लाओगे
ये मेरी सोच
का प्यासा परिंदा
तेरी बारिश
की बूंदें पी
रहा है
मैं जो चलता
हूं तो चलता
हूं तुम्हारी जानिब
दो क़दम तुम
मिरी जानिब कभी
आओ तो सही
उसे मस्जिद बनानी है इसे मंदिर बनाना है
मुझे बस एक चिंता, कैसे अपना घर चलाना है
हमारी इब्तिदा क्या देखते हो इंतिहा पूछो
मंज़िल तक पहुँचाना है जो, मेरे घायल कदमों को
कुछ हिम्मत भी दो चलने की, कुछ रस्ता आसान करो
हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें
हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
ReplyDeleteनाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें
क्या बात है !
बधाई !