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Thursday, February 20, 2014

ग़ज़ल

मैं इक भीड़ का हिस्सा हूँ
फिर भी कितना तन्हा हूँ

हँसना पड़ता है सब से
तन्हाई में रोता हूँ

साबुत दिखता हूँ लेकिन
अंदर से मैं टूटा हूँ

चलता फिरता हूँ यूँ हीं
यूँ ही बैठा रहता हूँ

कभी कभी यूँ लगता है
जैसे छोटा बच्चा हूँ

फ़ैल-फ़ैल के सिमट गया
सिमट सिमट के फैला हूँ

कभी रात जैसा हूँ मैं
कभी-कभी सूरज सा हूँ


एक अधूरापन सा है
जाने किसका हिस्सा हूँ


क्या बदलूँ खु़द को अनमोल
जैसा भी हूँ अच्छा हूँ

 

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