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Sunday, March 27, 2016

ग़ज़ल : ये सरहद कितनी माँओं के दुलारे छीन लेती है



कई लख्ते ज़िगर, आँखों के तारे छीन लेती है
ये सरहद कितनी माँओं के दुलारे छीन लेती है

अजीज़ो, मज़हबी वहशत से जितना बच सको बचना
ये वो डाइन है जो बच्चे हमारे छीन लेती है

सियासत खेल समझी है जिसे, वो जंग ऐ लोगो
फ़लक के सबसे चमकीले सितारे छीन लेती है

जो नफ़रत अपनी तक़रीरों वो भरते हैं सीनों में
बुज़ुर्ग़ों से बुढापे के सहारे छीन लेती है

खुदा को लाओ मत इसमें ये लालच की लड़ाई है
ज़मीनों आसमां के सब सहारे छीन लेती है

बड़ी बेदर्द है तक़दीर बेदर्दी पे आए तो
ये मासूमों से खुशियों के पिटारे छीन लेती है

न उतरो इस में तुम अनमोल इक पागल नदी है ये
सफ़ीने तोड़ देती है किनारे छीन लेती है

दो-ग़ज़ला



1
इक समंदर हूँ मैं अपने आप में सिमटा हुआ
वो समझते हैं मुझे दरिया कोई बहता हुआ

हाँ कि मुझमें ऐब भी हैं हाँ कि मैं इंसान हूँ
हाँ कि मैंने ग़लतियाँ कीं, हाँ मुझे धोका हुआ

आइने में देखता हूँ जब भी अपने आप को
हर दफ़ा लगता हूँ मैं पहले से कुछ सुलझा हुआ

ज़िंदगी की राह पर दुश्वारियाँ जब भी बढ़ीं
कोई मेरे हमकदम था जब भी मैं तन्हा हुआ

ज़िंदग़ी में क़हक़हे भी थे अगर कुछ अश्क थे
जैसी गुज़री खूब ग़ुज़री जो हुआ अच्छा हुआ

जब भी मुड़ के देखता हूँ अपने माज़ी को कभी
तू ही तू दिखता है मुझको नूर सा बिखरा हुआ

मैं इसी धोके में था सब कर रहा हूँ मैं मगर
जैसा जैसा उसने चाहा था सभी वैसा हुआ

हमने ख़ुद को ढूढने में उम्र सारी झोंक दी
छोड़िए अनमोल जी ये भी कोई किस्सा हुआ

2
हर तरफ़ दुनिया में है इक ख़ौफ़ सा पसरा हुआ
आदमी इस दौर में है बेतरह सहमा हुआ

मौत का सामान करने में जुटा है हर कोई
अब मुझे दिखता नहीं कोई यहां बचता हुआ

दिल महब्बत से भरा इस नफ़रतों के दौर में
जैसे काली रात में  कोई दिया जलता हुआ

मोजिज़ा ही है ये अपने दौर का ऐ दोस्तो
घर बड़े होते गए हैं और दिल छोटा हुआ

कोई समझाएगा इनको तो समझ जाएंगे लोग
छोड़िए जी ये जहाँ अपना भी है देखा हुआ