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Sunday, March 27, 2016

दो-ग़ज़ला



1
इक समंदर हूँ मैं अपने आप में सिमटा हुआ
वो समझते हैं मुझे दरिया कोई बहता हुआ

हाँ कि मुझमें ऐब भी हैं हाँ कि मैं इंसान हूँ
हाँ कि मैंने ग़लतियाँ कीं, हाँ मुझे धोका हुआ

आइने में देखता हूँ जब भी अपने आप को
हर दफ़ा लगता हूँ मैं पहले से कुछ सुलझा हुआ

ज़िंदगी की राह पर दुश्वारियाँ जब भी बढ़ीं
कोई मेरे हमकदम था जब भी मैं तन्हा हुआ

ज़िंदग़ी में क़हक़हे भी थे अगर कुछ अश्क थे
जैसी गुज़री खूब ग़ुज़री जो हुआ अच्छा हुआ

जब भी मुड़ के देखता हूँ अपने माज़ी को कभी
तू ही तू दिखता है मुझको नूर सा बिखरा हुआ

मैं इसी धोके में था सब कर रहा हूँ मैं मगर
जैसा जैसा उसने चाहा था सभी वैसा हुआ

हमने ख़ुद को ढूढने में उम्र सारी झोंक दी
छोड़िए अनमोल जी ये भी कोई किस्सा हुआ

2
हर तरफ़ दुनिया में है इक ख़ौफ़ सा पसरा हुआ
आदमी इस दौर में है बेतरह सहमा हुआ

मौत का सामान करने में जुटा है हर कोई
अब मुझे दिखता नहीं कोई यहां बचता हुआ

दिल महब्बत से भरा इस नफ़रतों के दौर में
जैसे काली रात में  कोई दिया जलता हुआ

मोजिज़ा ही है ये अपने दौर का ऐ दोस्तो
घर बड़े होते गए हैं और दिल छोटा हुआ

कोई समझाएगा इनको तो समझ जाएंगे लोग
छोड़िए जी ये जहाँ अपना भी है देखा हुआ




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